मानव एकता दिवस पर विशेष
इस
संसार के इतिहास को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि यहाँ विविधताएँ हमेशा से रही
हैं. यह विविधताएँ किसी दूसरे देश के स्तर से लेकर देश के भीतर भी रही हैं. किसी
एक देश में ही संस्कृतियाँ, भाषाएँ, पहनावा, रीति-रिवाज, परम्पराएं, मान्यताएं आदि
भिन्न-भिन्न होना उस देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की परिचायक होती हैं. ऐसी
स्थिति में भी जब किसी देश के लोग एक-दूसरे की परम्पराओं और मान्यताओं का सम्मान
करते हुए एकता के साथ हर किसी का मान-सम्मान करते हुए जीवन जीते हैं तो उस देश में
शान्ति और सकून का वातारवण बना रहता है. भारत तो सदियों से “वसुधैव कुटुम्बकम” की
अवधारणा को साकार रूप देता आया है और इसके सांस्कृतिक और अध्यात्मिक मूल्य पूरे
विश्व के प्राणियों को आलोकित करते आये हैं. उन्हें जीवन के उच्च मूल्यों से जोड़ते
आये हैं. इस देश की मिट्टी में न जाने ऐसी क्या ख़ास बात है कि यहाँ
पीरों-पैगम्बरों, सन्तों-महात्माओं, दार्शनिकों का अवतरण होता रहा है और इन्होनें
पूरी मानवता को अपने जीवन, कर्म और विचारों से आलोकित किया है. इनका मकसद मनुष्य
को उसके जीवन का परम लक्ष्य समझाने का रहा है और इसके लिए इन सन्तों-महात्माओं,
पीरों-पैगम्बरों ने अपने जीवन को एक उदाहरण के रूप में पेश किया है. आदिकाल से आज
तक अगर हम पूरे विश्व के अध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न महात्माओं के जीवन और
कार्यों को देखें तो हमें पता चल जायेगा कि जब-जब भी मानव अपने जीवन मूल्यों को
भूला है तो इन पीरों-पैगम्बरों ने मनुष्य को मानवता का पाठ पढ़ाने और मानव मूल्यों
की स्थापना के लिए भरसक प्रयास किया है. इन प्रयासों में मानव ने ही कई बार अवरोध
पैदा किया है, ऐसी स्थिति में मानवता के उच्च आदर्शों और मानव मूल्यों को कायम
रखने के लिए इन सन्तों ने अपने जीवन का बलिदान तक दे दिया.
इन्हीं
बलिदानी सन्तों की परम्परा में सन्त निरंकारी मिशन के तीसरे गुरु के रूप
में प्रकट हुए मानवता के पथ प्रदर्शक युगप्रवर्तक बाबा गुरुवचन सिंह जी महाराज
का नाम भी अविस्मरणीय है, जिन्होंने मानवता के उच्च आदर्शों, अध्यात्मिक और मानवीय
मूल्यों को कायम करने के लिए अपने जीवन का बलिदान तक दे दिया. लेकिन जिस सत्य का
प्रचार करने का बीड़ा इन्होने उठाया उससे कभी पीछे नहीं हटे. इस सन्दर्भ में उनके ही
वचन उल्लेखनीय हैं. उन्होंने कहा कि “सत्य के प्रचार में रुकावटें डालना कोई नयी
बात नहीं. सत्य का रूप तभी निखर कर सामने आता है जब तप और त्याग की भट्टी में से
गुजरता है. पुरातन इतिहास इस बात का गवाह है कि सत्य की राह पर चलने वालों को
विरोध-क्रोध का सामना करना पडा है. उन्हें अपने प्राणों तक का बलिदान देना पड़ा
है”. उनके श्रीमुख से उच्चरित यह वचन पूरे इतिहास को सामने रखते हैं. लेकिन यह भी
एक सत्य है कि यह पीर-पैगम्बर मानव के विरोध-क्रोध की परवाह किये बगैर मानवता के
मूल्यों को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं.
बाबा
गुरुवचन सिंह जी का जन्म 10 दिसम्बर 1930 ईस्वी को पेशावर में हुआ. इनमें बचपन से
ही ऐसे
गुण देखने को मिले जो साधारण बालकों में नहीं दिखाई देते हैं. बचपन से ही इनमें दूसरों के दुःख-दर्द को समझने की क्षमता विकसित हो गयी थी. प्रत्येक मानव से प्रेम करना तो इनके स्वभाव का अंग था. यह वैर-विरोध, नफरत निन्दा आदि से दूर ही रहते थे. बचपन से ही इनका व्यक्तित्व आकर्षक था, गंभीर सोच और निरन्तर क्रियाशीलता इनके व्यक्तित्व के अद्भुत गुण थे. इन्होंने मिडिल क्लास तक की शिक्षा पेशावर में और फिर मैट्रिक तक की शिक्षा रावलपिण्डी में खालसा स्कूल में प्राप्त की. 1947 में भारत का विभाजन होने पर यह अपनी आगे की शिक्षा को जारी नहीं रख सके, लेकिन जीवन में जिस अनुभव और चिन्तन को शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करना होता है उसे इन्होने अपनी कर्मठता और मौलिक चिन्तन के बल पर हासिल किया. इसी कर्मठता, मौलिक चिन्तन और अध्यात्मिक शक्तियों को भली प्रकार से समझने तथा गुरु के वचनों को जीवन में उतारने के फलस्वरूप आगे चलकर यह निरंकारी मिशन के पथ प्रदर्शक बने और इन्होने अपने कार्यों, विचारों और जीवन दर्शन के माध्यम से पूरे विश्व के मानव का पथ प्रदर्शन किया.
गुण देखने को मिले जो साधारण बालकों में नहीं दिखाई देते हैं. बचपन से ही इनमें दूसरों के दुःख-दर्द को समझने की क्षमता विकसित हो गयी थी. प्रत्येक मानव से प्रेम करना तो इनके स्वभाव का अंग था. यह वैर-विरोध, नफरत निन्दा आदि से दूर ही रहते थे. बचपन से ही इनका व्यक्तित्व आकर्षक था, गंभीर सोच और निरन्तर क्रियाशीलता इनके व्यक्तित्व के अद्भुत गुण थे. इन्होंने मिडिल क्लास तक की शिक्षा पेशावर में और फिर मैट्रिक तक की शिक्षा रावलपिण्डी में खालसा स्कूल में प्राप्त की. 1947 में भारत का विभाजन होने पर यह अपनी आगे की शिक्षा को जारी नहीं रख सके, लेकिन जीवन में जिस अनुभव और चिन्तन को शिक्षा के माध्यम से प्राप्त करना होता है उसे इन्होने अपनी कर्मठता और मौलिक चिन्तन के बल पर हासिल किया. इसी कर्मठता, मौलिक चिन्तन और अध्यात्मिक शक्तियों को भली प्रकार से समझने तथा गुरु के वचनों को जीवन में उतारने के फलस्वरूप आगे चलकर यह निरंकारी मिशन के पथ प्रदर्शक बने और इन्होने अपने कार्यों, विचारों और जीवन दर्शन के माध्यम से पूरे विश्व के मानव का पथ प्रदर्शन किया.
यह
बात भी हमें भली प्रकार से समझनी होगी कि ईश्वर की लीला निराली होती है. सद्गुरु
संसार के लिए ईश्वर का प्रतिनिधि होता है, जो अपने जीवन, कर्म और उपदेशों के
माध्यम से मानवता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील होता है. बाबा गुरुवचन सिंह जी भी
सद्गुरु रूप में प्रकट (दिसम्बर 1962) होने के साथ ही इस दिशा में आगे बढ़ते गए.
मिशन का कार्यभार संभालते ही इन्होंने ज्ञान-प्रचार की दिशा में अनेक सराहनीय
निर्णयों के साथ सभी को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. उनका स्पष्ट मत था कि मानव को
सिर्फ सांसारिक तौर पर ही उन्नति नहीं करनी है, बल्कि भौतिक उन्नति के साथ ज्ञान
और भक्ति के स्तर पर भी उन्नत होना है और अनुकरणीय जीवन जीते हुए सभी के लिए
प्रेरणा का स्रोत बनना है. बाबा गुरुवचन सिंह जी ने निरंकारी मिशन और इससे जुड़े
हुए अनुयाइयों के सामाजिक जीवन को उन्नत बनाने और उन्हें सामाजिक विषमताओं से
मुक्त करने के लिए व्यापक कार्य योजना बनाई. नशा नहीं करना, जाति-पाति, अमीर-गरीब
में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करना, सबके प्रति समदृष्टि का भाव रखना, सादा
शादियों को तरजीह देना ऐसे अनेक प्रेरक कार्य हैं जिनके माध्यम से मानव एकता को मजबूती
देने का कार्य उन्होंने किया. मिशन का जो स्वरूप आज हम देख रहे हैं उसकी आधारशिला
बाबा गुरुवचन सिंह जी की देन है.
सामाजिक
समरसता और मानव एकता के प्रति इनकी सोच स्पष्ट थी. समाज में व्यक्ति को जितने
स्तरों पर बांटा गया है उससे मानवीय भाव कम ही हुआ है. आज हम देख रहे हैं कि संसार
की हालत क्या है? इतनी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति होने के बाबजूद भी मानव-मानव से
प्रेम और सही संवाद स्थापित नहीं कर पाया, बल्कि नफरत और विरोध का स्तर बढ़ा है.
कारण चाहे कोई भी हो, हर तरफ भौतिक उन्नति का शोर है और मानव-मानव के खून का
प्यासा बना फिरता है. इस सन्दर्भ में बाबा गुरुवचन सिंह जी के विचार उल्लेखनीय है.
उन्होंने कहा है कि “मुझे काली, पीली या नीली झंडियों से कभी दुःख महसूस नहीं हुआ,
पर जब किसी भी मनुष्य का खून बहता है, तो मैं बहुत दुःखी होता हूँ. चाहे वह मनुष्य
हमारा साथी हो या विरोधी. मनुष्य का खून किसी भी हालत में नहीं बहना चाहिए.” अगर
हम इनके विचारों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करें तो विश्व में अमन,
शांति और भाईचारा स्थापित होने में कोई बाधा नहीं, लेकिन जो बाधाएं हैं उनका कारण
हम ही हैं. हमारी जड़ मानसिकता हमें व्यापक दृष्टि प्रदान नहीं करती. इसलिए जब भी
समरसता और मानवीय मूल्यों का कोई स्वर कहीं से भी उठता है तो दुनिया उसे दबाने का
भरपूर प्रयास करती है, और जब वह अपने प्रयासों में सफल नहीं होती है तो वह उस आवाज
या व्यक्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयास करती है. बाबा गुरुवचन सिंह जी के साथ
भी यही हुआ. कुछ विरोधी लोगों ने इनके समाज के लिए किये जा रहे कार्यों का व्यापक
विरोध किया, लेकिन जितना विरोध किया उतना ही इनके कार्यों का विस्तार होता गया.
विरोधी लोगों को अपने मन्तव्यों में सफलता मिलते न देख इन्होंने उनके जीवन को ही
समाप्त करने की योजना बनायीं, और मानवता के यह कट्टर विरोधी 24 अप्रैल 1980 को अपने
उस घृणित मकसद को पूरा करने में कामयाब हो गए.
बाबा
गुरुवचन सिंह जी का जीवन और विचार हम सबके लिए दर्पण के समान हैं. हमें सांसारिक
भेद भाव से ऊपर उठकर इनके विचारों को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि मानवता के
लिए जो श्रेष्ठ बलिदान इन्होंने दिया है हम उसकी कीमत चुका सकें.