परमात्मा इस सृष्टि
के कण कण में विद्यमान है और इसे सिर्फ गुरु की कृपा से प्राप्त किया जा सकता है. इसका
स्वरूप निराकार है और यह स्वयं बना है सारी सृष्टि इसमें समाई है और यह सृष्टि में
समाया है. सारे जगत का कर्ता धर्ता यह परमात्मा है.जब
गहराई से विचारते हैं तो हम वास्तविकता से अवगत होते हैं. वर्ना हम अज्ञानता में
ही अपना जीवन गवां देते हैं. जीवन का मतलब तो वैकुण्ठ को प्राप्त करना है, मोक्ष हासिल करना है और यह सब तब ही हासिल होता है
जब हमें गुरु की कृपा से परमात्मा के दर्शन होते हैं, और तब
भक्त कहता है "सीस दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान" ऐसा गुरु जो जिज्ञासु
की जिज्ञासा को शांत कर दे. उसे मुक्ति मार्ग पर डाल दे उसे उसके जीवन का लक्ष्य
समझा दे. तो फिर भक्त के लिए गुरु और ईश्वर में कोई भेद नहीं. वह फिर कबीर की तरह
कहता है :-
गुरु गोबिंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिंद दियो मिलाय.
गोबिंद से मिलाने
के कारण गुरु ‘साक्षात पारब्रह्म’ हो गया. गुरु माध्यम बन गया आत्मा का मिलन
परमात्मा से करवाने का और जीव ने हासिल कर लिया अपने जीवन का लक्ष्य, अब आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं और यही भेद न
होने के कारण भक्त ईश्वर को सर्वत्र देखता है, उसे अपने
अंग-संग महसूस करता है. बाबा अवतार सिंह जी द्वारा रचित अवतार वाणी में इस अहसास
को यूँ अभिव्यक्त किया गया है :
रूप रंग
ते रेखों न्यारे,
तैनूं लख परणाम
करां I
मन बुद्धि ते अकलों बाहरे, तैनूं लख परणाम करां I
अनहद ते असगाह स्वामी, तैनूं लख परणाम करां I
शाहाँ दे हे वी शाह स्वामी, तैनूं लख परणाम करां I
आद अनादि सर्वव्यापी , तैनूं लख परणाम करां I
जुग जुग अन्दर तारे पापी, तैनूं लख परणाम करां I
सगल घटं दे अन्तर्यामी, तैनूं लख परणाम करां I
आपे नाम ते आपे नामी, तैनूं लख परणाम करां I
जीव जन्त दे पालनहारे, तैनूं लख परणाम करां I
मन बुद्धि ते अकलों बाहरे, तैनूं लख परणाम करां I
अनहद ते असगाह स्वामी, तैनूं लख परणाम करां I
शाहाँ दे हे वी शाह स्वामी, तैनूं लख परणाम करां I
आद अनादि सर्वव्यापी , तैनूं लख परणाम करां I
जुग जुग अन्दर तारे पापी, तैनूं लख परणाम करां I
सगल घटं दे अन्तर्यामी, तैनूं लख परणाम करां I
आपे नाम ते आपे नामी, तैनूं लख परणाम करां I
जीव जन्त दे पालनहारे, तैनूं लख परणाम करां I
कहे अवतार हे प्राण आधारे, तैनूं
लख परणाम करां
I
तेरी ओट सहारा तेरा तन मन घोल घुमावां I
कहे अवतार तेरे ही दाता दिन रातीं गुण गावां I
तेरे हुक्मों बाहिरा चल न सक्के कोए I
अवतार कुझ ना कर सके जो चाहें तूं होए I
यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा
गया है कि परमात्मा जिसे मैंने गुरु कि कृपा से प्राप्त किया है वह कल्पना से बाहर
की वस्तु है जिसके विषय में मैंने कभी सोचा ही नहीं. इस परमात्मा सामने महसूस करते
हुए वह उसे संबोधित करते हुए कहते हैं ‘कि तुझे मैं लाखों बार प्रणाम करता हूँ,
क्योँकि तू रूप रंग और रेखाओं से न्यारा है. जहाँ हम खुदा को किसी स्वरूप में
बाँधने की कोशिश करते हैं वहीँ पर अवतार सिंह जी कहते हैं कि यह ईश्वर रूप और
रेखाओं से न्यारा है और इसे हमारे मन बुद्धि और अकलों से बाहर है इसे हमारी छोटी
सी बुद्धि नहीं समझ सकती, यह अनहद है और इसका
कोई पार नहीं पाया जा सकता इसकी थाह लेना बहुत कठिन है. यह शाहों का शाह है. यह
आदि काल से यूँ ही है और ना जाने कब तक यूँ ही रहेगा यह कभी समाप्त होने वाला नहीं
है और यह परमात्मा सर्वव्यापी है इसलिए मैं इसे नमस्कार करता हूँ.
इस
परमात्मा ने धरती के जीवों पर कृपा की और उन्हें पार उतारा है,
कई पापियों को यह युगों-युगों से इस भव (संसार)
से पार लगता आया है, यह सर्वव्यापी ईश्वर सभी के दिल की
जानने वाला है, तभी तो इसे अन्तर्यामी कह रहा हूँ. यह स्वयं
नाम है और स्वयं ही नामी है, इसकी महिमा अवर्णनीय है. इस
सृष्टि में पैदा होने वाले प्रत्येक जीव का यह पालक है और सही मायनों में हमारे
प्राणों का आधार ही यही है. इसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं. मैं तुझे अंग संग
महसूस करते हुए तेरा सहारा स्वीकार करता हूँ और तेरे ही गुण मैं दिन रात गाने का
वादा करता हूँ क्यूंकि मुझे अब समझ आ गया है कि तेरे हुकम के बगैर कोई भी नहीं चल
सकता और मैं कहता हूँ (अवतार) कि वही कुछ होता है जो कुछ तू चाहता है. यहाँ
प्रत्येक पंक्ति में तूं और तैनूं शब्द का प्रयोग किया गया है जो जो सीधे संवाद
(आत्मा का परमात्मा से) को दर्शाता है.
वेदांत
दर्शन में भी इस साक्षात ईश्वर की महिमा गायी गई है वहां इसे पूरी सृष्टि का कारण
कहा गया है ‘एष योनिः सर्वस्य’ (मा० उ ० 6) अर्थात यह परमात्मा सम्पूर्ण जगत
का कारण है. यतो वा इमानि भूतानि
जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति I यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति I तद्विजिज्ञासस्व I
तद्ब्रह्मेति I (तै ० उ 0 312) यह सब प्रत्यक्ष दीखने वाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा अंत में प्रयाण करते हुए
जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा कर और वही
ब्रह्म है. अब जब सृष्टि का आधार ही ब्रह्म है तो उसे जानना आवश्यक है और मानव
जीवन का लक्ष्य भी वही है. भगवान् श्रीकृष्ण जब अर्जुन
को विराट रूप के बारे में जानकारी देते हैं तो वह भी कहते हैं : नमः पुरस्तादतथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व/ अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः I (गीता 11 /40) अर्जुन कहते हैं : हे अनंत सामर्थ्यों वाले!
आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार है. हे सर्वात्मन! आपके लिए सब और से ही
नमस्कार हो. क्योँकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को
व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं अर्थात सब कुछ
आप ही हैं.
18 आपकी टिप्पणियाँ:
सत्य वचन.. परमात्मा इस सृष्टि के कण कण में विद्यमान है और इसे सिर्फ गुरु की कृपा से प्राप्त किया जा सकता है ... सारे जगत का कर्ता धर्ता वही परमात्मा है... सुन्दर चिंतन... परमात्मा,ब्रह्म सृष्टि का आधार
ब्रह्म... अनंत है असीम है, जितना जान पायें इन्हें उतना ही कम है...
बहुत सुंदर सार्थक ,सारगर्भित चिंतन .....
शिक्षाप्रद!!
@ यह ईश्वर रूप और रेखाओं से न्यारा है और इसे हमारे मन बुद्धि और अकलों से बाहर है इसे हमारी छोटी सी बुद्धि नहीं समझ सकती
पूर्ण सहमति!
गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ सुन्दर एवं सार्थक पोस्ट!
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शब्द दिल को छू गये। ऐसी भक्ति मय जानकारी दी है।
केवल राम जी - अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा :)
सुन्दर ज्ञानमय और भक्तिमय प्रस्तुति है आपकी.
अवतार वाणी को सादर नमन.
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अध्यात्म पर बहुत ही विवेचनात्मक और विश्लेषण के साथ बेहतरीन प्रस्तुति.....
सार्थक चितन है आपका हमें भी ज्ञान दे गया आभार |
bahut hi achchi prastuti kevalram jee.
गुरू परमात्मा का ही साक्षात् स्वरूप है। कई अर्थों में,गुरू अथवा संतों का दर्जा ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। इसलिए गुरुद्रोह को अक्षम्य कहा गया है।
ब्रह्म... अनंत है असीम है,
AAPAKE LEKHAN KO PRANAM.
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सारगर्भित....
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